Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद



गोदान

मेहता ने समीप आकर विस्मय के साथ पूछा -- आप इस वक़्त यहाँ कैसे आ गयीं?
गोविन्दी ने बालक को चुप कराते हुए कहा -- उसी तरह जैसे आप आ गये।
मेहता ने मुस्कराकर कहा -- मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चुप कर दूँ।
'आपने यह कला कब सीखी? '
'अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी। '
'अच्छा! परीक्षा के दिन क़रीब आ गये? '
'यह तो मेरी तैयारी पर है। जब तैयार हो जाऊँगा, बैठ जाऊँगा। छोटी-छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़-पढ़कर आँखें फोड़ लिया करते हैं। यह तो जीवन-व्यापार की परीक्षा है। '
'अच्छी बात है, मैं भी देखूँगी आप किस ग्रेड में पास होते हैं।
यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उन्होंने बच्चे को कई बार उछाला, तो वह चुप हो गया। बालकों की तरह डींग मारकर बोले -- देखा आपने, कैसा मन्तर के ज़ोर से चुप कर दिया। अब मैं भी कहीं से बच्चा लाऊँगा। '
गोविन्दी ने विनोद किया -- बच्चा ही लाइएगा, या उसकी माँ भी?
मेहता ने विनोद-भरी निराशा से सर हिलाकर कहा -- ऐसी औरत तो कहीं मिलती ही नहीं।
'क्यों, मिस मालती नहीं हैं? सुन्दरी, शिक्षित, गुणवती, मनोहारिणी; और आप क्या चाहते हैं? '
'मिस मालती में वह एक बात भी नहीं है जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूँ। '
गोविन्दी ने इस कुत्सा का आनन्द लेते हुए कहा -- उसमें क्या बुराई है, सुनूँ। भौंरे तो हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने सुना है, आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसन्द आती हैं। मेहता ने बच्चे के हाथों से अपनी मूँछों की रक्षा करते हुए कहा -- मेरी स्त्री कुछ और ही ढंग की होगी। वह ऐसी होगी, जिसकी मैं पूजा कर सकूँगा।
गोविन्दी अपनी हँसी न रोक सकी -- तो आप स्त्री नहीं, कोई प्रतिमा चाहते हैं। स्त्री तो ऐसी आपको शायद कहीं मिले।
'जी नहीं, ऐसी एक देवी इसी शहर में है।
'सच! ' मैं भी उसके दर्शन करती, और उसी तरह बनने की चेष्टा करती।
'आप उसे खुब जानती हैं। वह एक लखपती की पत्नी है, पर विलास को तुच्छ समझती है; जो उपेक्षा और अनादर सह कर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होती, जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती है, जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार है, और जो इस योग्य है की उसकी प्रतिमा बनाकर पूजी जाय। '
गोविन्दी के हृदय में आनन्द का कम्पन हुआ। समझकर भी न समझने का अभिनय करती हुई बोली -- ऐसी स्त्री की आप तारीफ़ करते हैं। मगर मेरी समझ में तो वह दया की पात्र है। वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती है, वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है।
मेहता ने आश्चर्य से कहा -- आप उसका अपमान करती हैं।
'लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है। '
'वह आदर्श सनातन है और अमर है। मनुष्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है।
गोविन्दी का अन्तःकरण खिला जा रहा था। ऐसी फुरेरियाँ वहाँ कभी न उठी थीं। जितने आदमियों से उसका परिचय था, उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊँचा था। उनके मुख से यह प्रोत्साहन पाकर वह मतवाली हुई जा रही थी। उसी नशे में बोली -- तो चलिए, मुझे उन के दर्शन करा दीजिए।
मेहता ने बालक के कपोलों में मुँह छिपाकर कहा -- वह तो यहीं बैठी हुई हैं।
'कहाँ, मैं तो नहीं देख रही हूँ।
'उसी देवी से बोल रहा हूँ।
गोविन्दी ने ज़ोर से क़हक़हा मारा -- आपने आज मुझे बनाने की ठान ली, क्यों?
मेहता श्रद्धानत होकर कहा -- देवीजी, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं, और मुझसे ज़्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैं जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता हूँ, वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूँ, आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।
गोविन्दी की आँखों से आनन्द के आँसू निकल पड़े; इस श्रद्धा-कवच को धारण करके वह किस विपत्ति की सामना न करेगी। उसके रोम-रोम में जैसे मृदु-संगीत की ध्वनि निकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबाकर कहा -- आप दार्शनिक क्यों हुए मेहताजी? आपको तो कवि होना चाहिए था।
मेहता सरलता से हँसकर बोले -- क्या आप समझती हैं, बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता है? दर्शन तो केवल बीच की मंज़िल है।
'तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैं; लेकिन आप यह भी जानते हैं, कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलता? '
'जिसे संसार दुःख कहता है, वहाँ कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि, ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहाँ ज़रा भी आकर्षण नहीं है, उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा, उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है। मैंने आपकी दो-चार कविताएँ पढ़ी हैं और उनमें जितनी पुलक, जितना कम्पन, जितनी मधुर व्यथा, जितना रुलानेवाला उन्माद पाया है, वह मैं ही जानता हूँ। प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप-जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनायी।
गोविन्दी ने हसरत भरे स्वर में कहा -- नहीं मेहता जी, यह आपका भ्रम है। ऐसी नारियाँ यहाँ आपको गली-गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गयी बीती हूँ। जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सके, अपने को उसके मन की न बना सके, वह भी कोई स्त्री है। मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ कि मालती से यह कला सीखूँ। जहाँ मैं असफल हूँ, वहाँ वह सफल है। मैं अपने को भी अपना नहीं बना सकती, वह दूसरों को भी अपना बना लेती है। क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहीं?
मेहता ने मुँह बनाकर कहा -- शराब अगर लोगों को पागल कर देती है, तो इसलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जाय, जो प्यास बुझाता है, जिलाता है, और शान्त करता है?
गोविन्दी ने विनोद की शरण लेकर कहा -- कुछ भी हो, मैं तो यह देखती हूँ कि पानी मारा-मारा फिरता है और शराब के लिए घर-द्वार बिक जाते हैं, और शराब जितनी ही तेज़ और नशीली हो, उतनी ही अच्छी। मैं तो सुनती हूँ, आप भी शराब के उपासक हैं?
गोविन्दी निराशा की उस दशा को पहुँच गयी थी, जब आदमी को सत्य और धर्म में भी सन्देह होने लगता है; लेकिन मेहता का ध्यान उधर न गया। उनका ध्यान तो वाक्य के अन्तिम भाग पर ही चिमटकर रह गया। अपने मद-सेवन पर उन्हें जितनी लज्जा और क्षोभ आज हुआ, उतना बड़े-बड़े उपदेश सुनकर भी न हुआ था। तर्को का उनके पास जवाब था और मुँह-तोड़; लेकिन इस मीठी चुटकी का उन्हें कोई जवाब न सूझा। वह पछताये कि कहाँ से कहाँ उन्हें शराब की युक्ति सूझी। उन्होंने ख़ुद मालती की शराब से उपमा दी थी। उनका वार अपने ही सिर पर पड़ा। लज्जित होकर बोले -- हाँ देवीजी, मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें यह आसक्ति है। मैं अपने लिए उसकी ज़रूरत बतलाकर और उसके विचारोत्तेजक गुणों के प्रमाण देकर गुनाह का उज्रा न करूँगा, जो गुनाह से भी बदतर है। आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि शराब की एक बूँद भी कंठ के नीचे न जाने दूँगा।
गोविन्दी ने सन्नाटे में आकर कहा -- यह आपने क्या किया मेहताजी! मैं ईश्वर से कहती हूँ, मेरा यह आशय न था। मुझे इसका दुःख है।
'नहीं, आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपने एक व्यक्ति का उद्धार कर दिया। '
'मैंने आपका उद्धार कर दिया। मैं तो ख़ुद आप से अपने उद्धार की याचना करने जा रही हूँ। '
'मुझसे? धन्य भाग! '
गोविन्दी ने करूण स्वर में कहा -- हाँ, आपके सिवा मुझे कोई ऐसा नहीं नज़र आता जिससे मैं अपनी कथा सुनाऊँ। देखिए, यह बात अपने ही तक रखिएगा, हालाँकि आपसे यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं। मुझे अब अपना जीवन असह्य हो गया है। मुझसे अब तक जितनी तपस्या हो सकी, मैंने की; लेकिन अब नहीं सहा जाता। मालती मेरा सर्वनाश किये डालती है। मैं अपने किसी शस्त्र से उस पर विजय नहीं पा सकती। आपका उस पर प्रभाव है। वह जितना आपका आदर करती है, शायद और किसी मर्द का नहीं करती। अगर आप किसी तरह मुझे उसके पंजे से छुड़ा दें, तो मैं जन्म भर आपकी ऋणी रहूँगी। उसके हाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा रहा है। आप अगर मेरी रक्षा कर सकते हैं, तो कीजिए। मैं आज घर से यह इरादा करके चली थी कि फिर लौटकर न आऊँगी। मैंने बड़ा ज़ोर मारा कि मोह के सारे बन्धनों को तोड़कर फेंक दूँ; लेकिन औरत का हृदय बड़ा दुर्बल है मेहता जी! मोह उसका प्राण है। जीवन रहते मोह तोड़ना उसके लिए असम्भव है। मैंने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखी; लेकिन आज मैं आपसे आँचल फैलाकर भिक्षा माँगती हूँ। मालती से मेरा उद्धार कीजिए। मैं इस मायाविनी के हाथों मिटी जा रही हूँ ...
उसका स्वर आँसुओं में डूब गया। वह फूट-फूट कर रोने लगी। मेहता अपनी नज़रों में कभी इतने ऊँचे न उठे थे उस वक़्त भी नहीं, जब उनकी रचना को फ़्रांस की एकाडमी ने शताब्दी की सबसे उत्तम कृति कहकर उन्हें बधाई दी थी। जिस प्रतिमा की वह सच्चे दिल से पूजा करते थे, जिसे मन में वह अपनी इष्टदेवी समझते थे और जीवन के असूझ प्रसंगों में जिससे आदेश पाने की आशा रखते थे, वह आज उनसे भिक्षा माँग रही थी। उन्हें अपने अन्दर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ कि वह पर्वत को भी फाड़ सकते हैं; समुद्र को तैरकर पार कर सकते हैं। उन पर नशा-सा छा गया, जैसे बालक काठ के घोड़े पर सवार होकर समझ रहा हो वह हवा में उड़ रहा है। काम कितना असाध्य है, इसकी सुधि न रही। अपने सिद्धान्तों की कितनी हत्या करनी पड़ेगी, बिलकुल ख़याल न रहा। आश्वासन के स्वर में बोले -- मुझे न मालूम था कि आप उससे इतनी दुखी हैं। मेरी बुद्धि का दोष, आँखों का दोष, कल्पना का दोष। और क्या कहूँ, वरना आपको इतनी वेदना क्यों सहनी पड़ती!
गोविन्दी को शंका हुई। बोली -- लेकिन सिंहनी से उसका शिकार छीनना आसान नहीं है, यह समझ लीजिए।
मेहता ने दृढ़ता से कहा -- नारी-हृदय धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती है, कड़वापन भी। उसके अन्दर पड़नेवाले बीज में जैसी शक्ति हो।
'आप पछता रहे होंगे, कहाँ से आज इससे मुलाक़ात हो गयी। '
'मैं अगर कहूँ कि मुझे आज ही जीवन का वास्तविक आनन्द मिला है, तो शायद आपको विश्वास न आये! '
'मैंने आपके सिर पर इतना बड़ा भार रख दिया। '

मेहता ने श्रद्धा-मधुर स्वर में कहा -- आप मुझे लज्जित कर रही हैं देवीजी! मैं कह चुका, मैं आपका सेवक हूँ। आपके हित में मेरे प्राण भी निकल जायँ, तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा। इसे कवियों का भावावेश न समझिए, यह मेरे जीवन का सत्य है। मेरे जीवन का क्या आदर्श है, आपको यह बतला देने का मोह मुझसे नहीं रुक सकता। मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँ, जो प्रसन्न होकर हँसता है, दुखी होकर रोता है और क्रोध में आकर मार डालता है। जो दुःख और सुख दोनों का दमन करते हैं, जो रोने को कमज़ोरी और हँसने को हलकापन समझते हैं, उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनन्दमय क्रीड़ा है, सरल, स्वच्छन्द, जहाँ कुत्सा, ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं। मैं भूत की चिन्ता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिन्ता हमें कायर बना देती है, भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवन की शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकर, रूढ़ियों और विश्वासों और इतिहासों के मलवे के नीचे दबे पड़े हैं; उठने का नाम नहीं लेते, वह सामर्थ्य ही नहीं रही! जो शक्ति, जो स्फूर्ति मानव-धर्म को पूरा करने में लगनी चाहिए थी, सहयोग में, भाईचारे में, वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप-दादों का ऋण चुकाने की भेंट हो जाती है। और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है, इस पर तो मुझे हँसी आती है। वह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा है, जो हमारी मानवता को नष्ट किये डालती है। जहाँ जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है; और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना है, और मोक्ष है। ज्ञानी कहता है, ओठों पर मुस्कराहट न आये, आँखों में आँसू न आये। मैं कहता हूँ, अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं हो, पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं है, कोल्हू है। मगर क्षमा कीजिए, मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया। अब देर हो रही है, चलिए, मैं आपको पहुँचा दूँ। बच्चा भी मेरी गोद में सो गया।

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